विशाखदत्त

अस्तर पर छपे मूर्तिकला के प्रतिरूप में राजा शुद्धोदन के दरबार का वह दृश्य है, जिसमें तीन भविष्यवक्ता भगवान बुद्ध की माँ--रानी माया के स्वप्न की व्याख्या कर रहे हैं उनके नीचे बैठा है मुंशी जो व्याख्या का दस्तावेज़ लिख रहा है भारत में लेखन-कला का संभवतः यह सबसे प्राचीन और चित्रलिखित अभिलेख है।

नागार्जुनकोण्डा, दूसरी सदी ई० सौजन्य : राष्ट्रीय संग्रहालय नयी दिल्ली

भारतीय साहित्य के निर्माता

विद्ञाखदत्त

मातृदत्त त्रिवेदी

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साहित्य अकादेमी

एगदांधावरबंदाव ; 4 तराणा02/9॥ जा एा€ ९३5८१) $ शारदा पक्वाशाऊ 0१ था एपा4 पाएटत, 5५३ 50808, १९ए 0॥॥

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(8 साहित्य अकादेमी

प्रथम संस्करण : 986 द्वितीय संस्करण : 988 तृतीय संस्करण :; 992

साहित्य अकादेमी

प्रधान कार्यालय

रवीन्द्र भवन, 35, फ़ीरोजशाह मार्ग, नयी दिल्‍ली-0 00॥ विक्रय विभाग : स्वाति', भन्दिर मार्ग, नयी दिल्‍ली-0 007

क्षेत्रीय कार्यालय

जीवन तार बिल्डिंग, चौथा तल, 230/44 एक्स, डायमंड हार्बर रोड, कलककत्ता-700 053

गूना बिल्डिंग द्वितीय तल ने, 304-305, अन्नासलाई तेनामपेट, मद्रास-600 0१8

72, मुम्बई मराठी ग्रन्थ संग्रहालय मार्ग, दादर, मुम्बई-400 04 ए.डी.ए, रंगामंदिरा, 709 जे.सी. रोड, बंगलौर-560 002

मूल्य | झधाएी ग#0 दंत हहश५560 #॥(६॥5. 5.00 मुद्रक विमल ऑफसैट नवीन शाहदरा, दिल्‍ली-0 032

अनुक्रम

विशाखदत्त : जीवनबुत्त और कृतित्व 7 समय-निरूपण 7 विशाखदत्त की बहुज्ञता 25 मुद्राराक्षस : इतिवुत्त और स्रोत 35 विशाखदत्त : कवि और नाटककार 49 मुद्राराक्षत का नाटकीय वैशिष्ट्य 64 चरित-चित्रण 7 विशाखदत्तकालीन मानव-समाज 9 तत्कालीन भारत की भौगोलिक स्थिति 00

संदर्भ ग्रंथ-स्‌ ची 06

विद्वाखदत्त : जीवनवृत्त और कृलित्व

जयच्ति ते सुकृतिनो रससिद्धा: कवीश्वरा: | तास्ति येषां यश: काये जरामरणजं भयम्‌ ।॥

(नीतिशंतक, श्लोक 20)

संस्कृत के अप्रतिम नाठक 'मुद्राराक्षस' के प्रणेता विशाखदत्त भी एक ऐसे रससिद्ध कवीश्वर हैं, जिनका यश: शरीर आज भी उनकी इस महनीय कृति के कारण हम लोगों के बीच विद्यमान है। संस्कृत में भास, शुद्रक, कालिदास, भट्टनारायण और भवभूति आदि अनेक नाट्यकार हो गये हैं, लेकिन पूर्णतः राजनी तिप्रधान नाठक की रचना करने से जो यश विशाखदत्त को मिला है, वह संभवतः किसी को नहीं मिला। एच. एच. विल्सन ने हमारे नाटककार को कालिदास और भवशभूति से हेय बताते हुए यह कहा है कि विशाखदत्त की कल्पना- शक्ति उन दोनों कवियों की ऊँचाई को नहीं पाती ) इनकी कृति में कठिनता से कोई शानदार या सुन्दर विचार मिलेगा ।! यह ठीक है कि कालिदास की भाषा और भावों की नैसगिक सुकुमारता तथा भवभूति की हृदयस्पर्शी करुणा विशाखदत्त की कृति में नहीं पायी जाती, लेकिन नाटकीयता, चरित-चित्रण की उदात्तता, परिस्थिति के अनुसार घटनाओं को सर्जेनात्मकता एवं रसभावादि की सुन्दर योजना आदि अनेक गुणों के कारण यह नाटक किसी भी प्रकार हेय नहीं है। वस्तुत: कालिदास और भवभूति से विशाखदत्त की तुलना करना इस दृष्टि से समीचीन नहीं है, क्योंकि कालिदास के नाटक ख़्ंगाररस-प्र धान हैं और भवभूति का उत्तरराभचरित, जिससे इनकी सर्वाधिक ख्याति है, करुणरस- प्रधात विशाखदत्त का नाठक इन दोनों से भिन्‍त राजनीति-प्रधान है, जिसमें

. 'सेलेक्ट स्पेसिमेग्स ऑन थियेटर अपव हिन्दूज', खण्ड [|

8 विशाखदत्त

आदि से अन्त तक चाणक्य की कूटनीति श्रपडिचत की गयी है, जैसा कि प्रसिद्ध टीकाकार ढुंढिराज ने प्रारम्भ में कहा है--

अत्यदुभुतविधादत्र संविधानान्महाकबि: प्रपमण्चपचति चाणक्यमुखेंन कुटिल॑ नयम्‌।। >< >< >८

कलौ पापिनि कौटिल्यनीति: सद्यः फलप्रदा। इत्यभिप्रेत्म कौटिल्यस्तामेवात्र प्रयुकतवान्‌॥।

यद्यपि भास के प्रतिज्ञायौगन्धरायण' का कथानक भी कुछ कूठनीति से युक्त है, लेकिन' वह 'मुद्राराक्षस” की प्रखरता के सम्मुख नहीं टिक पाता। यह कहने में किसी भी प्रकार की भत्युक्ति होगी कि चाणक्य की कूटनीति से संवलित जिस नाट्यकला का इसमें निदर्शन है, वह अन्य नाठकों में स्वंथा अनुपलब्ध है। आज चाणक्य का जैसा स्वरूप और स्वभाव हमारे मानस" पटल पर अंकित है, वह मुख्यतः इसी नाठक की देन है। चाणक्य की कूटनीति की योजना जैसी इस नाटक में है, बैसी इसके आकर ग्रन्थों---बू हत्कथा के संस्कृत रूपान्तर, क्षेमेन्द्र की बृहत्कथामझजरी' तथा सोमदेव के “कथा सरित्सागर' एवं 'विष्णुपुराण' और “्रीमद्भागवत' भादि में कहीं भी देखने को नहीं मिलती | इस सम्बन्ध में ढुंढिराज के ये शब्द स्मरणीय हैं, जो उन्होंने अपनी व्याख्या के अच्त में कहे हैं---

मुद्राराक्षसनाटक॑ लिखितवानू कौटिल्यनीते: कलां। गन्तुं यत्र विहारिणों प्लवनतो नीत्यम्बुधो सज्जना:।।

वंश-परिचय

संसक्षत के अधिकांश कवियों की भाँति विशाखदत्त ने भी अपने विषय में विस्तृत जानकारी नहीं दी। उन्होंने प्रारम्भ में सूत्रधार के मुख से केवल इतना कहलाया है कि वह सामन्‍्त बटेश्वरदत्त के पौत्र हैं और उनके पिता का नाम भास्करदत्त या पृथु है, जो महाराज कहलाते थे। यद्यपि मुद्राराक्षत की कुछ हस्तलिखित प्रतियों और सुभाषित ग्रन्थों में इनका विशाखदेव नाम भी मिलता है, लेकिन पिता और पितामह के नामों के आधार पर विशाखदत्त नाम ही अधिक समीचीन प्रतीत होता है। इनके पिता के नाम के विषय में विद्वानों में बड़ा वैमत्य है। कुछ पाण्डुलिपियों में 'महाराजभास्करदत्तसूनो: पाठ मिलता है और कुछ में 'महाराजपदभाकपृथुसूनों:। काशिनाथ व्यम्बक तेलंग और प्रो.

विशाखदत्त : जीवनवृत्त और कृतित्व 9

के, एच. ध्रूव ने 'भास्करदत्त' पाठ को ही ढीक माना है; जबकि मोरेश्वर रामचन्द्र काले और शारदारञजन राय ने 'पृथु' पाठ को !

वस्तुतः यह भूल प्रो. विल्सन से प्रारम्भ हुई, जिन्होंने 'पृथ” पाठ को शुद्ध मान उन्हें अजमेर का चौहानवंशीय राजा 'पृथुराज” बताया है ।? लेकिन उन्होंने भी यह स्वीकार किया है कि इसके साथ वटेश्वरदत्त नाम समानता की दृष्टि से कठिनाई उपस्थित करता है। तेलंग ने वहीं प्रस्तावना में इसका खण्डन करते हुए यह कहा है कि चौहानवंशीय पृथु 'पूथुराय”' या 'पृथुराज' के रूप में जाने जाते हैं, जबकि यहाँ उन्हें महाराज कहा गया है। अत: विशाखदत्त के पिता अजमेर के पृथुराय नहीं हो सकते प्रसिद्ध जम॑न विद्वान्‌ अलूफ्रेड हिल्ले- ब्राण्ट (8066 प्लां॥०७४७॥0॥) ने स्वसम्पादित मुद्राराक्षस में 'भास्करदत्त' पाठ को ही शुद्ध माता है। निस्सन्देह विशाखदत्त के पिता ने अत्यधिक उन्नति कर महाराज की पदवी प्राप्त की, जबकि उनके पिता केवल सामनन्‍्त ही ये। सामन्त और महाराज में विशेष अन्तर है, जिसे शुक्रनीति में इस प्रकार स्पष्ट किया गया है--

लक्षकर्षमितों भागो राजतो यस्य जायते ) बत्सरे वत्सरे नित्य॑ प्रजानां त्वविपीडनैं:

सामन्त: नृपः प्रोक्‍्तो यावल्लक्षत्रयावधि तदृध्व॑ दशलक्षान्तो नूपो माण्डलिक: स्मृतः ।।

तदृष्व॑ तु भवेद्राजा यावद्विशतिलक्षक: पञ्चाशल्लक्षपयंन्तो महाराज: प्रकी तितः ॥। (शुक्रनीति (/83-8 5)

अर्थात्‌ जिसे अपने राज्य से प्रजा को बिता कष्ट दिये हुए एक लक्ष रजत कर्ष (चाँदी का सिक्का) से लेकर तीन लक्ष तक वाधिक कर मिलता हो, उसे सामनन्‍त कहते हैं। पुनः: दशलक्ष पर्यन्‍्त वाषिक कर मिलने परु वह माण्डलिक राजा और बीस लक्ष तके वार्षिक कर मिलने पर राजा कहलाता है। तत्पश्चात्‌ पचास लक्ष तक वाधिक कर प्राप्त करने से वह व्यक्ति महाराज पद का भागी होता है इससे स्पष्ट है कि विशाखदत्त के पिता न्ते अत्यधिक उच्तति की और अपने को 'महाराज' सम्मानसूचक पद से अलंकृत किया अतः

2. 'द थियेटर आँव दे हिन्दूज, खण्ड [[, पृ० 28 तेलंग द्वारा सम्पादित मुद्राराक्षस को भूमिका, पृष्ठ |2

]0 विशाखदत्त

विशाखदत्त ते अपने पिता के वैभवपूर्ण काल में जीवन-यापन किया और राजनैतिक चातुरी अजित की, जिसकी झलक मुद्रा राक्षस में स्थान-स्थान पर दृष्टिगोचर होती

है। जन्मस्थान

संस्कृत के अधिकांश कवियों की भाँति विशाखदत्त का भी जन्म-स्थान अज्ञात है। यह निश्चिचत रूप से नहीं कहा जा सकता कि वह किस प्रान्त के रहनेवाले थे; लेकिन अपने नाठक में उन्होंने उत्तर भारत का जैसा भौगोलिक चित्रण किया है, उससे पता चलता है कि वह निःसन्देह उत्तर भारत के ही निवासी थे। वह पश्चिम में पारसीक (फ़ारस) देश से लेकर पूर्व में बंगाल तक के भू-भाग से भली-भाँति परिचित थे | पर्व॑तक-पुत्र मलयकेतु की सेना में कुलूत, मलय, कश्मीर, सिन्धु और पारसीक देश के राजा और उत्तकी सेनाएँ सम्मिलित थीं ।* ये सभी देश भारत के उत्त र-पश्चिम में अवस्थित थे। चन्द्रगुप्त और परवव॑तेश्वर की सेनाओं ने जब पाटलिपुत्र पर आक्रमण किया तो उस समय उनमें शक, यवन, किरात, कास्थोज, पारसीक और वाह्वीक सेन्तिक थे ।! ये सभी भारत के पश्चिमोत्तर प्रान्त के निवासी थे। मलयकेतु सेना की त्यूहूरचना कर जब पाटलिपुत्र पर आक्रमण करने की योजना बनाता है, तब उसकी सेना में खश, मगध, गान्धार, यवन, शक, चीन अथवा चेदि, हुण और कुलूत आबि देशों के सैनिकों का उल्लेख है।* इनमें से भी अधिकांश सैनिक उत्त र-पश्चिम भारत के रहने वाले थे। मगध देश, जिसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी, उससे विशाखदत्त भली-भाँति परिचित थे। पाटलिपुत्र गंगा के किनारे स्थित था। चन्द्रगुप्त का राजप्रसाद, जिसका नाम सुगांगप्रसाद था, गंगा के तट पर बना हुआ था। शोण तदी को पार कर पाटलिपुत्र में जाया जा सकता था। इसी प्रकार के अन्य कथन हैं, जिनसे प्रतीत होता है कि विशाखदत्त को इस भू-प्रदेश की विशेष जानकारी थी। मगध देश के प्रति हमारे ताटककार का अत्यधिक लगाव था, जैसा कि गौडाडगनाओं के वर्णन से प्रतीत होता है कि भौंरों के समान काले उनके कुड्चित केश थे और वे अपने कपोलों पर लोघ्रपुष्पों का पराग लगाती थी ।९ गौड देश उस समय का मगध देश ही है। इस प्रकार का वर्णन वही

3. मुद्रा, /20

4. उही, ]22 (इस पुस्तक में मुद्राराक्षस की पृष्ठसंख्या तेलंग के संस्करण के आधार पर दी गये) है)

5. बही 5/]

6. मुद्रा, 5/23

विशाखदत्त : जीवनवृत्त और कृतित्व ]

व्यक्ति कर सकता है, जिसने किसी प्रदेश के रहनेवालों के आचार-व्यवहार आदि का बड़ा सूक्ष्म अवलोकन किया हो। इस आधार पर यदि विशाखदत्त को मगधदेशाभिजन मानता जाय तो असंगत होगा।

शारदार|ञ्जन राय ने अपने मुद्राराक्षत के संस्करण में 'न शाले: स्तम्ब- करिता वस्तुर्गुणमपेक्षते! (/3) तथा 'मुसलमिदर्मियं पातकाले मुहुर॒नुयाति कलेन हुंकृतेन' (/4)--इन वर्णनों के आधार पर उन्हें बंगाली सिद्ध करने का प्रयस्त किया है, यद्यपि धान के लहलहे गुच्छे उत्तर प्रदेश में भी दिखायी पड़ते हैं 'पौरैरड्गुलिप्षिन॑वेन्द्रवदहं॑निर्दिश्यमान: शनै:” (6/!0)--इस इलोक में जिस लोक-प्रथा का उल्लेख है, वह भी यहाँ प्रचलित है। प्रायः स्त्रियाँ अपने शिशुओं को गोद में लेकर चन्द्रमा की ओर अऑँगुली उठाकर उन्हें देखने के लिए प्रेरित करती हैं। इसके अतिरिक्त काशपुष्प (2/7; 3/20) राजहंस (3/20) तथा सारस (3/7) आवबि का जैसा वर्णत है, उससे भी यही सिद्ध होता है कि विशाखदत्त उत्तर प्रदेश और विहार आदि प्रदेशों से भली-भाँति परिचित थे; क्योंकि यहीं शरद्‌ ऋतु में काशपुष्पों की छवि देखने को मिलती है और यही नदियों किनारे राजहुंस और सारस-कुल विचरण करते हुए दिखाई पढ़ते हैं। विशाखदत्त ने तृतीय अंक के 9वें और 24वें श्लोक में दक्षिण समुद्र का भी वर्णन किया है, जिसमें विविध वर्णो की मणियाँ चमकती रहती हैं और जिसका जल चज्चल महामत्स्पों से आन्दोलित होता रहता हैं, परन्तु दक्षिण देश के उस समय के सगरों एवं नदियों आदि के वर्णत के अभाव से उन्हें दक्षिण देश का निबासी नहीं माना जा सकता वह निस्सन्देह उत्तर भारत के निवासी थे, लेकिन किस भूभाग-विशेष को अलंकृत करते थे, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। वस्तुत: विशाबदत्त काव्य-गगन के देदीप्यम्नान चद्र हैं, जिन्हें सभी लोग चाहते हैं और अपने-अपने गृहों को आलोकित करनेवाला बताते हैं। वह्‌ कालिदास के समान सभी के प्रिय हैं और सभी के अपने हैं

वर्ण और धर्म

विशाखदत्त ने अपने जन्म-स्थान आदि की भाँति वर्ण के विषय में भी कुछ नहीं कहा; लेकिन नाटक में ब्राह्मणों के प्रति जो आदर भाव व्यक्त हुआ है, उससे स्पष्ड होता है कि वह ब्राह्मण थे नाटक की प्रस्तावना में सूत्रधार और नटी के वार्तालाप में ब्राह्मणों के लिए अनेकश: भगवत्‌' शब्द का प्रयोग हुआ है उदाहूरणत:--- , कथय किमद्य भवत्या तत्र॒भवतां ब्राह्मणानामुपनिमत्त्रणेन कुटुम्बकमनुगृहीतम्‌ ? 2. आये, आमन्त्रिता मया भगवन्तो ब्राह्मणा: 3. तत्प्रवर््यतां भगवतो ब्राह्मणानुहिश्य पाक:

(2 विशाखदत्त

इस शाब्द के प्रयोग से ब्राह्मणों के प्रति श्रद्धा व्यक्त की गयी है इससे उनका ब्राह्मण होना घ्वनित होता है। परन्तु रणजीत सीताराम पण्डित ने 'द सिग्नेठ रिंग! (]॥6 887० 7) में उन्हें क्षत्रिय बताया है और यह तके दिया है कि विशाख का अर्थ होता है शंकर-पुत्र स्वामी कारतिकेय। इनकी कृपा से ही नाटककार का जन्म हुआ होगा, अत: उनका नाम विशाखदत्त रखा गया। विशाख का सम्बन्ध युद्ध से था; क्योंकि वह देवताओं के सेनापति थे! युद्ध करना मुख्यतः क्षत्रियों का धर्म है। इस नाटक में राजदरबार का जैसा वर्णन है और राजा के सन्निध्य में रहनेवालों का राजा के प्रति कैसा बर्ताव होना चाहिए, इन सब बातों से यह स्पष्ट होता है कि विशाखदत्त दरबारी जीवन और वहाँ के लोगों के आचार-व्यवहार से भलीभाँति परिचित थे। इससे उनका क्षत्रिय होना सिद्ध होता है। लेकिन वस्तुत: विचार करने से उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर उन्हें क्षत्रिय महीं कहा जा सकता परशुराम जीवनपय॑न्‍त युद्ध करते रहे, लेकिन कर्मणा वह क्षत्रिय नहोकर ब्राह्मण ही थे। बाणभट्ट ने सम्राट हष के दरबार का जैसा वैभवपूर्ण वर्णन किया है, पह अप्रतिम है; लेकिन उस वर्णन से उनका क्षत्रियल्व नहीं सिद्ध होता है। वह भी ब्राह्मण थे। इस नाटक के दो प्रमुख पात्र चाणक्य और राक्षस ब्राह्मण हैं। एक चन्द्रगुप्त का महामन्त्री है तो दूसरा नन्दों का। राक्षस युद्ध-कला में पारंगत होते हुए भी ब्राह्मण ही है। युद्धकाल में उसके विलक्षण शौर्य का प्रतीक मुद्राराक्षस का यह श्लोक है--

यत्रैषा मेघनीला चरति गजधटा राक्षसस्तत्र याया-

देतत्पारिप्लवाम्भ: प्लुति तुरगबलं वार्यतां राक्षसेन

पत्तीर्ना राक्षसो5न्त॑ नयतु बलमिति प्रेषयन्मह्यमाज्ञा-

मज्ञासी: प्रीतियोगात्‌ स्थितमिव नगरे राक्षसानां सहख्रम्‌ू (2/44)

इससे उसका वीरत्व व्यज्जित होता है; वर्णत्व नहीं इस सम्बन्ध में एक बात और ध्यान देने की है कि जिस प्रकार भवभूति और भरट्टनारायण, जो ब्राह्मण थे और उन्होंने अपने नाटकों में विदूषक को नहीं रखा, उसी प्रकार विशाख- दत्त ने भी अपने नाटक में विदृषक को कोई स्थान नहीं दिया। विदृषक अपनी विक्ृत आक्ृति, बाणी ओर वेष आदि से विरह-व्याकुल राजा का मनोविनोद करता रहता है। वैसे यह ब्राह्मण होता है लेकिन इससे ब्राह्मणों की दीन-हीन दशा की अभिव्यक्ति होती है। इसलिए उपर्युक्त नाटककारों के नाठकों में विदूषक का अभाव है | अतः भवभूति और भट्टनारायण की भाँति विशज्ञाखदत्त का ब्राह्मणत्व ही सिद्ध होता है

विशाखदत्त किस विशिष्ट मतवाद के माननेवाले थे, यह भी निश्चित

विशाखदत्त : जीवनवृत्त और कृतित्व ]3

रूप से ज्ञात नहीं होता। प्रारम्भ में दोनों नान्दी-पद्मों में भगवान शंकर की स्तुति होने से कुछ लोगों ने उन्हें शैव सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। प्रथम तानदी-पद्म में शिव का पौराणिक स्वरूप चित्रित किया गया है, जिनके वामांग में पार्वती विराजमान हैं, ललाट में चन्द्रकला है और शिर पर जटाजूटों में निलीन हैं गंगा। दूसरे में, शिव को ताण्डव नृत्य करते हुए दिखाया गया है, जिनके तृतीय नेत्र में अग्ति-ज्वाला दहकती रहती है, जिससे वह सृष्टि का संहार करते है।इस श्लोक के मूल में शिवमहिम्त स्तोत्र का यह श्लोक प्रतीत होता है---

मही पदाघाताद्‌ व्रजति सहसा संशयपद॑ पद॑ विष्णो भ्रम्यिद्भुजपरिघरुश्णग्रहगणम्‌ मुहुयांदौस्थ्यं | यात्यनिभृतजटाताडिततटा जगद्रक्षाय त्वं नटसि नतु वामेव विभुता ।।

पुनः तृतीय अंक में वैतालिक के मुख से प्रस्तुत शरदु-वर्णन से अप्रस्तुत शिव के शरीर का जैसा वर्णन कराया गया है (शलोक 20), उससे भी शिव के पौराणिक स्वरूप की अभिव्यक्ति होती है। उनके शरीर पर चिता की भस्म लगी हुई है; मस्तक में चन्द्रमा विराजमान है; जिसकी किरणों से गजासुर का चर्म जो वह धारण किये हैं, आर्द होता रहता है; गले में नर-कपालों की माला है और वह अट्टहास करते हैं

इस प्रकार के शिव-वर्णन से विशाखदत्त को शैव नहीं कहा जा सकता; क्योंकि एक ओर जहाँ वैतालिक ऐशीतनु का वर्णन करता है, वहाँ दूसरी ओर (श्लोक 2) बह शेष-शय्या पर जागे हुए भगवान्‌ विष्णु का भी वर्णन करता है। पौराणिक धारणा है कि आषाढ़ में हरिशयती एकादशी को भगवान्‌ शेषशस्या पर शयन करते हैं और कार्तिक में देवोत्थानी एकादशी को जागते हैं (शेते विष्णु: सदाषाढे कातिके प्रतिबोध्यते)। इससे उतकी विष्णु-भक्ति प्रकट होती है। इसके अतिरिक्त भरत वाक्य में भी उन्होंने वराहवपुर्धारी भगवान विष्णु की

स्तुति की है, जिन्होंने प्रलयकाल में डूबी पृथ्वी को अपनी दन्तकोदि पर धारण किया--

वाराहीमात्मयोनेस्तनुमवनविधावा स्थितस्यथानुरूपा यस्य प्राग्दल्तकोर्टि प्रलयपरिगता शिक्षिये भूतधात्री (7/8) इन सब वर्णनों से ऐसा प्रतीत होता है कि विशाखदत्त वैदिक धर्म अथवा

]4 विशाखदत्त

ब्राह्मणधर्म के अनुयायी थे, जिसमें क्या शिव, क्या विष्णु सभी देवताओं के प्रति भक्ति-भाव अपित किये जाते हैं। वाठककार ने सूर्य के लिए भगवान्‌ शब्द का प्रयोग कर अपनी श्रद्धा को प्रकट किया है।” उन्होंने जैनियों और बौद्धों के प्रति भी आदर भाव व्यक्त किया है ।॥* इससे उनकी धामिक सहिष्णुता का परिचय मिलता है। यह ब्राह्मण धर्म की ही विशेषता है, जिसमें सभी धर्मों के प्रति सम्मान प्रदर्शित किया जाता है, किसी से द्वेष नहीं किया जाता (सा विहिधाब) है।” यद्यपि विशाखदत्त सभी धर्मों के प्रति उदार थे, लेकित वह मुख्य रूप में हरिहरात्मिका भक्ति के उपासक थे | कालिदास ने भी इसी प्रकार की भक्ति अप- नायी है। 'कुमारसभ्भव' उनकी शिव-भक्ति का परिचायक है तो 'रघुवंश” विष्ण- भक्ति का |

कालिदास की भाँति विशाखदत्त ने भी शिव और विष्णु के प्रति समान रूप से अपनी भक्ति-भावना प्रर्दाशित की है। नाटक का प्रारम्भ शिव-स्तुति से होता है तो अवसान बराहावतारधा री भगवान्‌ विष्णु की स्तुति से। बीच में शिव और विष्णु का एक-सा स्तवन है। इससे यही निष्कषं निकलता है कि विशाखदत्त की वही हरिहरात्मिका भक्ति है, जिसका उल्लेख भगवत्पाद शंकर ने गंगास्तुति में किया है---

भूयादभक्तिरविच्युता हरिहराद्वेतात्मिका शाश्वती

कृतियाँ

विशाखदत्त की एकमात्र पूर्णतः उपलब्ध कृति "मुद्राराक्षस' है, जिससे उनका यश सर्वत्र छाया है। इसके अतिरिक्त रामचन्द्र गुणचन्द्र के 'नादुयदर्पण' और भोज के “श्रृंगार प्रकाश' में उद्धृत सन्दर्भों से, जिन्हें प्रो. भ्र्‌व ने अपने मुद्रा- राक्षस के संस्करण के अन्त में परिशिष्ट 'द' के रूप में दिया है, ऐसा प्रतीत होता है कि विशाखदत्त ने 'देवीचन्द्रगुप्तम” नामक एक और नाटक की रचना

7, अध्ताशिलाषों भगवान सूर्य: (पृ० 25) अये, अस्ताभिलाषी भगवान्‌ भास्कर: | पृ० 2]5 8. आाहँतातां श्रणमामि ये ते गम्भीरतया बुद्धे : लोकीत्तरलोंके सिद्धि मार्गेग्ेचछन्ति |॥ (मुद्रा० 5/2) हर बुद्धानामपि चेष्टितं सुचरितेः विलष्टं विशुद्धात्मना (वही, 7/5) 9. कठोपनिषत्‌ शान्तिपाठ

विशाखदत्त : जीवनवृत्त और कृतित्व ]5

की थी। मुद्राराक्षत के समान इसका पी विपय राजनैतिक है, यद्यपि वैसी उदात्तता इसमें नहीं पायी जाती | संभवतः यह नाटक छह या सात अंकों का होगा; क्‍योंकि 'नाट्यदर्पण' में 'देवीचन्द्रगुप्तम' से जो नंष्क्रामिकी श्रुवा ली गयी है, उप्तसे यही ज्ञात होता है कि नाटक अभी समाप्ति की ओर नहीं है। यह नैष्क्रामिकी ध्रूवा पञधु्चम अंक के अन्त में है। इस नाटक में चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य द्वितीय के द्वारा शकों की पराजय और सौराष्ट्र की विजय वरणित है। गुप्तवंशीय सम्राट्‌ रामगुप्त ने शकों की राजधानी ग्रिरिपुर पर आक्रमण किया, लेकिन वह शत्रुओं के चंग्रुल में फेंस गये | शक-सन्नाट ने उन्हें इस शर्ते पर छोड़ना चाहा कि वह अपनी सुन्दरी पत्नी श्र वदेवी को शकराज को समपित करें। रामगुप्त के छोटे भाई चन्द्रगुप्त इस णर्त से बड़े ही क्रुद्ध हुए और उन्होंने अपने बड़े भाई को मुक्त कराने की एक योजना बनायी। वह श्लुवदेवी के बेप में शत्रु के स्कन्धावार में गये और शक-नरपति को मार डाला; पुन; आक्रमण करके शकराज्य को जीत लिया | “श्ंगारप्रकाश” में इस आएणय का एक उद्धरण मिलता है--स्त्रीवेष--तिक्नू तश्चन्द्रगुप्त: शत्रों: स्कन्धावारं गिरिपुरं शकपतिवधा यागमत्‌ इसी प्रसंग का उल्लेख बाण ने अपने 'हर्षचरित' के षष्ठ उच्छवास में इस प्रकार किया है--अरिपुरे परकलत्रकामुकं कामितीवेषगुप्तसइच चर्द्रगुप्त: शकपतिमशातयत्‌ हर्पचरित के टीकाकार शंकर ने इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया हैं-- शकानामाचार्य: शकाधिपति: चद्द्रगुप्तभ्रातृजायां ध्र्‌ बदेवी प्रार्थ- यमानश्चच्धगुप्तेते ध्ूूवदेवीवेषधारिणा स्त्रीवेषजनपरिवृतेन रहूसि व्यापादित: श्रीधरदास-प्रणीत 'सदुक्तिकर्णामृतम्‌' में विशाखदत्त के नाम से एक श्लोक दिया हुआ है, जिसमें विभीषण रावण से राम की वीरता का वर्णन करते हुए कहता है---

रामोड्सौ भुवनेपु विक्रमगुणर्यातः प्रसिद्धि पर--- मस्मदभाग्यविपयेयाद्‌ यदि पर॑ देवो जानाति तम्‌

बन्दीवेष यशांसि गायति मरुद्‌ यस्यैकबाणाहति श्रेणीभूतविशालतालविव रोदगी णें: स्वर: सप्तनि: )। (/46/5)

अर्थात्‌ राम अपने पराक्रम-गुणों से सभी भृवनों में प्रसिद्धि को प्राप्त कर चुके हैं; लेकिन हमारे दुर्भाग्य से आप उन्हें नहीं जानते उनके एक बाण के प्रह्मर से पंक्तिबद्ध विशाल (सात) ताल वृक्षों के छिद्टों से तिकले हुए सप्तस्वरों से यह मझत्‌

0, दृषंचरित, पृ० (99-200) निर्णयस्तागर ग्रेष्त, बस्बई 937

[6 विशाखदत्त

उनका यशोगान कर रहा है |

मम्मट ने इसे काव्यप्रकाश के चतुर्थ उल्लास में पर्दकदेशों की वीररस- व्यज्जकता के उदाहरण रूप में उद्धत किया है। इससे यह प्रतीत होता है कि विशाखदत्त ने रामायण-कथा पर आश्रित किसी नाठक की रचना की होगी, जिसका यह पद्य है; लेकिन निश्चित रूप से इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा सकता

पीटसँन के द्वारा सम्पादित 'सुभाषितावली" में दो अनुष्टुप्‌ विशाखदेव के नाम से विये हुए हैं। यद्यपि पीटर्सन ने विशाखदेव को विशाखदत्त ही माना है; लेकिन प्रो. ध्यू उन्हें भिन्‍न व्यक्ति मानते हैं। वे अनुष्टुप्‌ इस प्रकार हैं--

तत्‌ त्रिविष्टपमाख्यातं तन्‍्वज्भया यद्वलित्रयम्‌ येनानिमिषदृष्टित्वं नृणामप्युपजायते ।॥॥

सेन्द्रचापैः भ्रिता मेघैनिपतान्निर्झ रा नगाः

वर्णकम्बलसंवीता बभुर्मत्ता द्विपा इव॥ (सुभा० 538,728)

सपम्रय-निरूपण

विशाबदत्त के जन्मस्थान की भाँत्ति उनका समय भी अद्यावधि अनिर्णीत ही है। विद्वानों ने अन्त:साक्ष्य और बाह्यप्षाक्ष्य के आधार पर उन्हें भिन्‍न-भिन्‍न काल का माना है। अन्त:साक्ष्य के रूप में मुद्राराक्षत और उसकी विविध पाण्ड्- लिपियाँ हैं, जिनका उल्लेख तेलंग ने अपने मुद्राराक्षत्त के संस्करण की भूमिका में किया हैऔर बाह्मसाक्ष्य के रूप में उन ग्रन्थों की गणना होती है, जिनमें मुद्राराक्षत के श्लोक उद्धृत हैं अथवा इसके इतिवृत्त का उल्लेख है। इत अन्तरंग और बहिरग प्रमाणों के आधार पर विशाखदत्त का समय चौथी शताब्दी ई० से लेकर बारहवीं शताब्दी तक माना जाता है | बारहवीं शताब्दी निश्चित रूप से अन्तिम सीमा है।

बाह्यसाक्ष्य

श्रीधरदास ने जो बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन के समय में थे, उनके शासन के सताइसवें वर्ष में (शक सं० 27) अर्थात्‌ 205 ई० में 'सदुक्तिकर्णा मृतम्‌! की रचना की | उन्होंने विशाखदेव के नाम से दो श्लोकों को उद्धृत किया है, जो पीछे दिये गये हैं। यदि पीटर्सस का यह कथन ठीक है कि विशाखदेव विशाखदत्त ही हैं, तो वह निश्चित रूप से ।205 ई० के पूर्व के माने जायेंगे | भोज ने, जिनका समय ग्यारहवीं शताब्दी ई० है, अपने 'सरस्वतीकण्ठाभरण' में मुद्राराक्षस के दो इलोकों को उद्धुत किया है। प्रथम श्लोक इस प्रकार दिया हुआ है---

उपरि घन घनपटलं दूरे दयिता किमेतदापतितम्‌ | हिमवति दिव्यौषधय: कोपाविष्ट: फणी शिरसि |॥

मुद्राराक्षस में यह श्लोक चन्दनदास का स्वगत कथन है ओर मूलतः: प्राकृत में है, जिसकी संल्कृत-छाया इस प्रकार है---

]8 विशाखदत्त

उपरि घन घनरटितं दूरे दथिता किमेतदापतितम्‌ हिमवति दिव्यौषधय: शीर्षे सपे: समाविष्ट: ॥॥ (/22)

दूसरा एलोक मुद्राराक्षस का प्रत्यग्रोन्मेष जिह्या० (3/2]) है, जो सरस्वतीकण्ठाभरण में कुछ पाउ-भेद के साथ उद्धत है। वहाँ 'जृम्भितै:” के स्थान पर “जुम्भण: और अभिताम्रा' के स्थान पर “अतिताम्रा' है। यद्यपि भोज ने वहाँ यह नहीं बताया है कि ये श्लोक मुद्राराक्षस से उद्धत हैं, लेकिन इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं कि ये श्लोक मुद्राराक्षस के ही हैं अतः विशाखदत्त का समय ग्यारहवी शताब्दी ईसा पूर्व ठहरता है। धनव्जय (दसवी शताब्दी) के दशरूपक पर उनके छोटे भाई धनिक द्वारा लिखी हुई अवलोकचृत्ति में दो स्थलों पर मुद्राराक्षस का उल्लेख है। प्रथम उल्लेख इस अकार है---

तत्र बृहत्कथामूलं मुद्राराक्षसम्‌ू--

चाणक्यनाम्ना तेनाथ शकटालगृहे रह: कृत्यां विधाय सहसा सपुत्रो निहतो नृप: ॥। योगानन्दयश:शेषे पूर्वनन्दसुतस्तत: चन्द्रगुप्त: कृतो राजा चाणक्येन महौजसा (दशरूपक /68 पर वृत्ति)

दूसरा उल्लेख इस प्रकार किया गया है--- मन्‍्त्रणक्त्या, यथा मुद्राराक्षसे राक्षससहायावीनां चाणक्येन स्वबुद्धबणा भेद- नम्‌ अ्थेशकक्‍त्या तत्रेव, यथा परवंतकाभरणस्य राक्षसहस्तगमनेन सलयकेतु- सहोत्था यिभेदनम्‌ (दशरूपक 2-55 पर वृत्ति) प्रथम उद्धरण की सत्यता पर प्रो. भ्रूव और डॉ. हाल ने सन्देह व्यक्त किया है। प्रथम उद्धरण के श्लोक क्षेमेन्द्र की बृहत्कथामज्जरी के हैं, ग्रुणादूय की बृहत्कथा के नहीं; क्‍योंकि वह तो पैशाची प्राकृत में थी, जबकि ये एलोक संस्कृत में है। 'बूहत्कथामज्जरी' एक प्रकार से पैशाची बृहत्कथा का संस्कृत रूपान्तर है प्रो. ध्रूव क्षेमेद्ध को धनञझूजय से लगभग डेंढ़ सौ वर्ष बाद का मानते हैं।' ऐसी स्थिति में क्षेमेन्द्र के श्लोक धनञ्जय के दशरूपक में कैसे सकते हैं ? यदि

. मुद्दाराक्षस की भूमिका, पृष्ठ 23 की वाद-टिप्पणी के 2, दशरूपऊ, [7720फ्रद्बा0 लक! ढारा909#076०७ [7008, 865 में प्रकाशित 3, मृद्राराक्षस शी भूमिका, पृष्ठ 23 की पाद-टिप्पणी

समय-निरूपण ]9 दूसरे श्लोक को प्रामाणिक मानें तो विशाखदत्त धनज्जय के पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। अर्थात्‌ उनका दशम्‌ शताब्दी से पूर्व का होना निश्चित होता है।

दशरूपक के द्वितीय प्रकाश के प्रारम्भ में नायक के गुणों के प्रसंग में स्थिर नायक के विषय में अवलोककार धनिक कहते हैं--

स्थिर:---वाहुमन: क्रियाभि रचज््चलः ।'''यथा भत हरिशतकै--

प्रारभ्यते खलु विध्नभयेन नीचे:

प्रारभ्य विध्तविहिता विरमत्ति मध्या:

विध्नै: पुनः पुनरपि प्र तिहन्यमाना:

प्रारब्धमुत्तमगुणा परित्यजन्ति (भरत हरि, नीतिशतक श्लोक 27)

इसके चतुर्थ पाद का पाठान्तर “प्रारब्धमुत्तमगुणास्त्वमिवोहहन्ति” है, जो मुद्राराक्षस के प्रसंग के अनुकूल है।यह श्लोक मुद्राराक्षत का ही है, जो नीतिशतक में आया है, ऐसी मान्यता प्रो. क्रूव की भी है। भत्‌ हरि के शतकत्रय में इसी प्रकार अन्य कवियों के भी श्लोक मिलते हैं भतृ हरि का समय सप्तम शताब्दी माना जाता है। अत: विशाखदत्त उससे पूर्व के सिद्ध होते हैं। माघ के 'शिशुपाल वध के 6 वें सर्ग के 84 वें श्लोक के अन्तिमपाद 'इत्य॑ं नित्यविभुषणा युवतय: संपत्सु चापत्स्वपि” की समानता मुद्रा राक्षस के प्रथम अंक के चौदहवें श्लोक के चतुर्थ पाद 'ते भृत्या नृपते: कलत्रमितरे संपत्सु चापत्सु च' से मिलती है। इससे यह प्रतीत होता है कि इन दोनों कवियों में से किसी एक का दूसरे पर प्रभाव है। इसी प्रकार मुद्राराक्षत के इस श्लोक---

जानन्ति तन्त्रयु क्तिं यथास्थितं मण्डलमभिलिखन्ति ये मन्त्ररक्षणपरास्ते सर्पनराधिपावुंपचरन्ति (2/)

त्तथा शिशुपाल वध के इस एइलोक--

तल्त्रवापविदा योगैर्मण्डलान्यधितिष्ठता ! सुनिग्रहा नरेन्द्रेण फणीन्द्रा इब शत्रवः (2/88)

में समानता परिलक्षित होती है। यदि यहाँ हम यह मानते हैं कि मुद्राराक्षस का शिशुपालवध्च पर प्रभाव है तो विशाखदत्त का माघ से पूर्वकालिक होना सिद्ध होता है। माघ का समय सप्तम शताब्दी का उत्तराद्ध (अनुमानत:650-700) माना

20 विशाखदत्त

जाता है। अत: विशाखदत्त का समय इससे पूर्व का माना जा सकता है। इसी: प्रकार का साम्य 'किरातार्जुनीयम्‌' के इस श्लोक---

उपजापसहान्‌ विलदड्घयन विधाता नृपतीन्‌ मदोद्धतत: सहते जनोष्प्यध: क्रिया किमु लोकाधिकधाम राजकम्‌ ॥((2/47)

और मुद्राराक्षस के इस श्लोक---

सद्य: क्रीडारसच्छेदं प्राकृतो5पि तन मर्षयेत्‌ किमु लोकाधिक धाम विभ्राण: पृथिवीपति:॥ (4/0)

में पाया जाता है। यद्यपि तेलंग ने, 'किमु' के स्थान पर 'किनु” पाठ माता है, लेकिन माघ के श्लोक के आधार पर “किमु' पाठ ही ठीक प्रतीत होता है। शारदार|0्जन राय ने मुद्राराक्षस के संस्करण मेंकिमु लोकाधिक॑ धाम०' इसी पाठ को अपनाया है। भारवि का समय कीथ ने छठी शताब्दी का उत्तराद्ध (550 ई०) और क्ृष्णामाचार्य ने* छठी शताब्दी का प्रारम्भ माना है, अतः इलोक में यदि विशाखदत्त का प्रभाव माघ पर है तो वह माघ से पूर्व॑वर्ती सिद्ध होते हैं

इन ग्रन्धों की अपेक्षा मुद्राराक्षत और मृच्छकटिक में कुछ अधिक समानता दिखायी पड़ती है। मुद्राराक्षत्त की प्रस्तावता और मृच्छकटिक के आमुख में सूत्र- धार और नटी की बातचीत में पर्याप्त समानता मिलती है। इसी प्रकार मुद्रा- राक्षस के सप्तम्‌ अंक में वध्यस्थान की ओर चण्डालों के द्वारा ले जाये जाते हुए चन्दनदास और उसके पुत्र के साथ चाण्डालों की बातचीत और मृच्छकटिक के दनवें अंक में वध्यस्थान की ओर ले जाये जाते हुए चारुदत्त और उसके पुत्र के साथ चाण्डालों की बातचीत में पर्याप्त समानता: है शूद्रक का समय का लिदास के पूर्व का माना जाता है। कीयथ और क्ृष्णमाचार्य दोनों उन्हें कालिदास का पूर्ववर्ती मानते हैं। इससे भी विशाखदत्त की प्राचीनता ही सिद्ध होती है; क्‍योंकि उन्होंने अपने पू्व॑वर्ती नाटककार का उपर्युक्त स्थलों पर अनतुकरण किया है। बाण ने अपने ह्ष- चरित में कालिदास की अत्यधिक प्रशंसा की है, लेकिन शूद्रक का नाम नहीं लिया कहीं ऐसा तो नहीं कि श्‌द्रक की जो ख्याति विशाखदत्त के समय में थी, वह बाण के समय में नही रही। अतः विशाखदत्त बाण से बहुत प्राचीन और शूद्रक के

4. हिस्द्री ऑव संस्कृत लिटरेचर (हिन्दी अनुगाद) मंगल देव, पृ० 34 5. हिस्ट्री आँव क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर, पृ० ]94

समय-निरूपण 2]

बाद के सिद्ध होते हैं, क्योंकि शूद्रक की कृति का उनकी नाट्यक्ृति पर सर्वाधिक प्रभाव है

अन्तः:साक्ष्य

विशाबदत्त का समय निश्चित करने में मुद्राराक्षम के भरत-वाक्य-इलोक (7/8) की यह अन्तिम पंक्ति प्रमाणभूत है--

श्रोमद्वन्धुभृत्य श्चि रमवतुमहीं पारथथिवश्चन्द्रगुप्त:

भरतवाक्य में प्रायः समप्तामयिक राजा की प्रशस्ति वणित होती है। इससे यह सिद्ध होता है कि विशाखदत्त ने भरतवाक्य में अपने आश्रयदाता राजा का उल्लेख किया होगा लेकिन यह राजा कौन होगा, यह विचारणीय विषय है; क्योंकि मुद्रा राक्षस की विभिन्‍न पाण्डुलिपियों में 'पारथिवश्चन्द्रगुप्त: के स्थान पर पार्धिवों रच्तिवर्मा' और 'पाथिवोद्दन्ति वर्मा' ये विभिन्‍न पाठ आते हैं। सर्वप्रथम हम 'रन्तिवर्मा' पाठ को लेते हैं, जिसे विद्वानों ने मान्यता नहीं दी क्योंकि इस नाम का कोई ऐसा राजा ऐतिहासिक युग में नहीं हुआ, जिसकी वीरगाथा का वर्णन विशाखदत्त ने अपने नाटक में किया हो। ऐसा प्रतीत होता है कि यह अबन्तिवर्मा का ही विकृत रूप है, जो कुछ पाण्शुलिपियों में देखा जाता है

श्रीरंगस्वामी सरस्वती ने मालाबार में प्राप्त कतिपय पाण्डुलिपियों के आधार पर 'दन्तिवर्मा' पाठ को उपयुक्त मानते हुए उन्हें पललवराज दन्तिवर्मा सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, जिनका समय 720 ई० के लगभग है।० लेकिन प्रो. ध्रूव ने इस कथा को इस आधार पर असंगत बताया है कि पल्‍लववंशी दल्तिवर्मा शैव थे, जबकि भरतवाक्य में वराहु-रूपधारी भगवान्‌ विष्णु की स्तुति है, दूसरे उन्होंने म्लेच्छोन्मूलन का कोई ऐसा महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं किया, जिसकी ओर संकेत भरतवाक्य में किया हुआ है।

काशीनाथ श्यम्बक तेलंग और प्रो. के. एच. ध्यूव ने विशाखदत्त को कन्नौज के महाराज अवन्‍न्तिवर्मा का समकालिक माना है, जिनका समय छठी शताब्दी का उत्तराद् 579-600 ई० है। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि प्रो. ध्रव ने तो अपने संस्करण में 'पार्थिवों्वस्तिवर्मा' पाठ दिया है, लेकिन तेलंग ने 'पाथिवष्चन्द्रगुप्त:, पाठ ही दिया है, ऐसा संभवतः उन्होंने ढुंढिराज की टीका के आधार पर दिया होगा, जिसे सर्वप्रथम उन्होंने मुद्राराक्षस के साथ प्रकाशित

6. धुव--मुद्राराक्षस की भूमिका, पृ० 9

22 विशाखदक्त

किया ढुंढिराज ने चत्धगुप्तः पाठ को ठीक मानकर तदनुसार भरतवाक्य- इलोक की व्याख्या की है। अवन्तिवर्मा नाम के दो राजा ऐतिहासिक युग में हुए हैं। एक हैं कश्मीर के, जिनका उल्लेख कल्हण ने “राजतरडिगणी' में किया है और जितका शासन-काल 855-883 के बीच माना जाता है प्रो. याकोबी ने कश्मीर के महाराज अवन्तिवर्मा को विशाबदत्त का आश्रयदाता माना है। इस कथन की पुष्टि में उन्होंने यह तक दिया है कि मुद्रा- राक्षस में जिम्त चन्द्रगुष्त का उल्लेख है, वह 2 दिसम्बर 860 ई० को हुआ था और तभी राजा के मन्‍्त्री शूर ने इस नाटक का अभिनय कराया था !? लेकिन यहाँ यह प्रश्त उठता है कि यदि विशाखदत्त कश्मीर के अवन्तिवर्मा के आश्वित कवि होते, तो वह कश्मीर के राजा पुष्कराक्ष (काश्मीर: पुष्कराक्ष:- मुद्रा ।/20) को स्लेच्छ कहते--उपलब्धवानस्मि प्रणिधिभ्यों यथा तस्य म्लेच्छ- राजबलस्य मध्यात्रधानतमा: पञचराजान: परया सुहृत्तया राक्षसमनुवर्तन्ते इसके अतिरिक्त उनके साथ भरतवाक्य के इस कथन की भी संग्ति नहीं बैठती कि स्लेच्छों के भार से पीड़ित पृथ्वी ने इन्हीं राजा की भुजाओं का आश्रय लिया--म्लेच्छी रुद्विज्यमाना भुजयुगमधुना संश्रिता राजमूर्ते:- 7/8) अत: विशाखदत्त कश्मीर-नरेश अवन्तिवर्मा के समकालिक अर्थात्‌ नवम्‌ शताब्दी के नहीं हो सकते।

तेलंग और श्र्‌व ने कन्नौज के अवन्तिवर्मा को विशाखदत्त का समसामयिक माना है, जितका उल्लेख भरतवाक्य में है। इनके अनुसार भरतवाक्य में जिन स्लेच्छों की चर्चा है, वे हुण हैं, जिन्हें इन्हीं अवन्तिवर्मा और स्थाणीश्वर, थानेसर के महाराज प्रभाकरवद्ध॑न ने पूर्णतः: पराजित किया था। प्रो. धूव ने मुद्राराक्षस के अपने संस्करण की भूमिका में हण-साम्राज्य के उदय और अस्त का विस्तृत वर्णेन किया है। उतके अनुसार हृण-साम्नाज्य, जिसकी स्थापना तोरमाण और मिहिरकुल ने की थीं, दशपुर (वर्तमान मन्दसोर) के संग्राम में 528 ई० में विनष्ट होकर छोटे-छोटे स्वतन्त्र राज्यों में विभकत हो गया। इनमें पंजाब के शाकल (वर्तमान सियालकोट) और पश्चिमी राजपूताना तथा पूर्वी गुजरात के गुर्जर राज्य मुख्य थे। ये थानेसर और कन्नौज के राज्यों के लिए संकट और अशान्ति के कारण थे। कन्नौज के मौखर या मौखरिवंशीय राजा ईशानवर्मा और शर्वंवर्मा ने हुणों को 543 और 552 ई० के अनेक युद्धों में पराजित किया। इन युद्धों में थानेसर के राजाओं ने अपने पड़ोसी मौखरी-शासकों की सहायता की। आगे चलकर उनकी यह राजनैतिक मैत्री वेवाहिक मैँत्री में परिणत हो गई। थानेसर के महाराज

7, संस्कृत ड्रामा, ए. बी. कीथ, (अनुवादक डा, उदयभान्‌ सिह) पृ० 22 8. मुद्राराक्षत, पू० 84

समय-निरूपण 23

आदित्यवर्द्धन ने अपनी भग्रिनी का विवाह कन्नौज के राजकुमार सुस्थितवर्मा के साथ कर दिया

आक्सस नदी पर बच्चे हण-सा म्राज्य को जब तुर्कों ने फारस के शासक खुशरू नौशिखाँ की सहायता से 565 ई० लगभग नष्ट-भ्रष्ट कर दिया, तो वे बैक्ट्रिया से टिड्‌डी दल की भाँति भारत के उत्तर-पश्चिम में छा गये और उनसे मिलकर शाकल के हण थानेसर के शासकों के लिए आतंककारी पिद्ध हुए। थानेसर के महाराज प्रभाकरवर्दधन ने जो आदित्यवद्धंन के पुत्र थे, कन्तौज के शासक अवन्तिवर्मा की सहायता से हूणों को उसी प्रकार मार भगाया जैसे सिह हरिणों को भगाता है। यह अवन्‍न्तिवर्मा प्रभाकरवरद्धन के जामाता ग्रहवर्मा (हषवरद्धत के बहनोई) के पिता थे | हुणों को पराजित कर प्रभाकरवद्धन 'हुण हरिण केसरी” कहलाये ।*

अवन्तिवर्मा और प्रभाकरवर्धन की हूणों पर विजय संभवत: 582 ई० में हुई होगी। इसी विजय के उपलक्ष्य में विशाखदत्त ने इस नाटक की रचता की होगी और अवस्तिवर्मा ने प्रसन्‍त होकर इनके पिता भास्करदत्त को सामनन्‍्त से “महाराज” पद देकर सम्मानित किया होगा अवन्तिवर्मा का समय छठी शताब्दी का उत्तराद्धे है। अत: विशाखदत्त का भी समय यही निश्चित होता है।

एक अन्य दृष्टि से विशाखदत्त का समय यही प्रतीत होता है; क्योंकि इस समय बौद्ध धर्म का पूर्णत: हास नहीं हुआ था, अपितु लोगों का उसके प्रति आदरक्षाव था। सम्राद हर्ष के समय में ऐसा ही था। यद्यपि उनका झुकाव संभवत: बौद्धधर्म की ओर अधिक था, लेकिन वह शिव और सूर्य की उपासना करते थे। विशाखदत्त ने भी शिव और विष्णु के प्रति अपनी भक्ति दिखाई है और सूर्य को भगवान्‌ विशेषण से युक्त कर अपना आदरभाव व्यक्त किया है। बौद्धों के प्रति भी उन्होंने 'बुद्धानामपि चेष्टितं सुचरिते: क्लिष्टं विशुद्धात्मता' (मुद्रा 7/5 ) कहकर अपना सम्मान प्रकट किया है।इस प्रकार विशाखदत्त के समय का धामिक वातावरण वरद्धेनवंशीय राजाओं के समय के धामिक वातावरण के साम्य रखता है। अत: विशाखदत्त का समय जैसा के ऊपर कहा गया है, छठी शताब्दी का उत्तराद्ध सिद्ध होता है।

मुद्राराक्षस की कुछ पाण्डुलिपियों में 'पाथिवश्चन्द्रगुप्त:' पाठ मिलता है, जिसे तेलंग, शारदारञ्जनराय और काले आदि ने अपनाया है। प्रश्न उठता है कि यदि भरतवाक्य में वर्णित चन्द्रगुप्त विशाखदत्त के समसामयिक थे तो यह कौन चन्द्रगुप्त थे--मौर्य॑वंशीय चन्द्रगुप्त अथवा गुप्तवंशीय चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य द्वितीय ? चन्द्रगुप्त मौर्य तो नाटक का एक मुख्य पात्र है और समस्त घटना चक्र उसी पर केन्द्रित है। चन्द्रगुप्त मौयें के समय में विशाखदत्त ने इस नाटक को लिखा

24 विशाखदत्त

होगा, ऐसी संभावना बहुत कम लगती है। हाँ, गुप्तवंशीय चन्द्रगुप्त की संभावना कुछ बढ़ जाती है; क्‍योंकि भुप्तवंशीय शासक विष्णु के उपासक थे जौर विशाखदत्त का भी अनेक श्लोकों द्वारा विष्णोपासक होना सिद्ध होता है---कि शेषस्त भरव्यथा वपुषि क्ष्मां क्षिपत्येष यत्‌' (2/8) उक्त श्लोक में यह बताया गया है कि शेषनाग के फणों पर प्रृथ्त्री टिकी हुई है। प्रत्यग्रोन्मेष-जिह्या' 3/2[ इस श्लोक में शेषशायी भगवान्‌ विष्णु की स्तुति है और भरतवाक्य 7 8 में वराहावतारधारी विष्णु का स्तवन हैं। इन सब प्रसंगों से विशाखदत्त की विष्णुभक्ति अथवा वेष्णव धर्म के प्रति उनका अनुराग व्यक्त होता है। 'आशेैलेन्द्रात्‌ 3/ 9'---इस श्लोक में जिस भारत की कल्पना की गयी है, वह चतुर्थ और पछचम शत्ताब्दी की ऐतिहासिक परिस्थिति से मेल खाती है | इसके अतिरिक्त विशाखदत्त के नाम से अभिहित दिवीचन्द्रगुप्तम्‌' नाटक के जो अंश मिलते हैं, उसका नायक यही ऋचन्द्रगुप्त है, इन्हीं का उदात्त चरित्र-चित्रण इस नाटक में किया गया है। प्रसिद्ध इतिहासविद्‌ काशीप्रसाद जायसवाल, रणजीत सीताराम पण्डित, स्टेनकोनों (8८7707०क) और क्ृष्णमाचायें आदि विद्वान्‌ इस नाटक को चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय की रचना मानते हैं। भारतवाक्य में उल्लिखित म्लेच्छ हृण हो सकते हैं, जिन्हें चन्द्रगुप्त द्वितीय ने भगाकर पृथ्वी का उद्धार किया | हुण गुप्तवंश को अन्तिम पीढ़ी के शासकों से संघर्षशील थे, यह तथ्य इतिहास-प्रसिद्ध है। रणजीत सीताराम पण्डित ने कहा है कि गुप्तकाल भारत का स्वर्णयुग कहा जाता है, जिसमें साहित्य, कला, विज्ञान आदि सभी क्षेत्रों में चरम उन्नति हुई अत: विशाखदत्त इसी युग की देन हैं चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य द्वितीय, जिनका समम 375-43 ई० है, उन्हीं के समय में यह नाटक लिखा गया होगा और उन्हीं के दरबार में इसका अभिनय भी हुआ होगा अतः: मोटे तौर पर विशाखदत्त का समय चतुर्थ शताब्दी ई० प्रतीत होता है

विद्याखदत्त की बहुज्ञता

किसी महाकवि की उत्कृष्ट रचना में प्रतिभा और व्युत्पत्ति दोनों कारण- भूत रहती हैं। प्रतिभा तो कवित्व का बीजरूप संस्कारविशेष है, जो काव्य- रचना के लिए परमावश्यक है और व्युत्पत्ति लोक, शास्त्र और अन्य कवियों के काव्यों के पर्यालोचन से आती है। अच्छी काव्यक्ृति अथवा नाट्यकृति के लिए दोनों अपेक्षित हैं मुद्राराक्षत का अध्ययन करने से पता चलता हैं कि महाकवि विशाखदत्त प्रतिभा और व्यृत्पत्ति दोनों से सम्पन्न थे। वह प्रतिभावान्‌ तो थे ही; साथ ही उन्हे लोकानुभव भी था और अनेक शास्त्रों में वह पारंगत थे अपने पूर्ववर्ती कवियों की कृतियों का भी उन्होंने सम्यक्‌ू अध्ययन किया था। उनका अगाध शास्त्र-बैदुष्य मुद्राराक्षस में पदे-पदें परिलक्षित होता है। वह नाट्यशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, ज्योतिश्शास्त्र, छन्‍्दःशास्त्र, न्‍्यायवैशेषिक शास्त्र, आयुर्वेद आदि अनेक शास्त्रों में निष्णात थे। इसके अतिरिक्त पुराण, इतिहास, गुणादूय की बृहत्कथा, शूद्रक एवं कालिदास की नाद्यकृतियों का भी उन्होंने भली-भाँति अनुशीलन किया था। नृत्यगीतादि ललितकलाओं में वह पारंगत थे | युद्धकल्ा के भी वह मर्मज्ञ थे। शत्रु के निकट पहुँचकर किस प्रकार व्यूह-व्यवस्था कर उसके ऊपर आक्रमण करना चाहिए, इस बात का भी उन्हें ज्ञान था। कि बहुना, उनके समान प्रतिभा-व्युत्यत्ति-सम्पन्न नाटककार शायद ही संस्क्ृत-जगत्‌ में देखने को मिलेगा

नाट्यशास्त्र

नाटक के प्रारम्भ से ही विशाखदत्त का नाट्यशास्त्रीय ज्ञान प्रकट होने लगता है। द्वितीय तान्दी-पद्म में 'त्रिपुरविजयिन: पातु वो दुःखनृत्तम', यहाँ नृत्तम के प्रयोग से उनके नाट्यशास्त्र सम्बन्धी सूक्ष्म ज्ञान का परिचय होता है। धनडञ्जय के अनुसार नृत्य भावाश्रित होता है और नृत्त ताल और लय के ऊपर आश्ित “अन्यद्भावाश्यं नृत्य नृत्तं ताललयाश्रितम्‌' (दशरूपक ]/9) | यह भी मधुर और

26 विशाखदत्त

उद्धत भेद से लास्य और ताण्डव दो प्रकार का होता है। भगवान शंकर ताल-लय ऊपर नाचते हैं। अतः उनका नतेंन नृत्त कोटि का है और वह उद्धत होने से ताण्डव है। मुद्राराक्षम की कई प्रतियों में 'नृत्तम' के स्थान पर 'नृत्यम्‌' पाठ भी मिलता है, लेकिन हमारे विचार से वह ग्राह्म नहीं है। काशिताथ अ्यम्बक तेलंग, प्रो. के, एच. ध्रूव और मोरेश्वर रामचन्द्र काले ने मुद्राराक्षस के अपने संस्करणों में 'नृत्तम' को ही समीचीन मान कर अपनाया है। भास के नाटकों की छोड़कर अन्य नाटकों की भाँति इसका भी प्रारम्भ नान्‍दी से होता है; प्रारम्भ में प्रस्तावना है; नाटक का अंकों में विभाजन है; पाँचवें और छठे अंकों के प्रारम्भ में प्रवेशक के द्वारा भूत और भविष्यत्‌ कथांशों की सूचना दी गयी है और अन्त में भरतवाक्थ द्वारा नाटक की समाप्ति की गयी है। इसके अतिरिक्‍्त' नाटक के मध्य में भी स्थान-स्थान पर नाटककार के शास्त्रीय ज्ञान परिचय होता है। नाटक में नाटकीय इतिवृत्त का विस्तार पाँचों सन्धियों द्वारा किस प्रकार होता है, इसे इस श्लोक द्वारा सूचित किया गया है---

कार्योपक्षेपमादाौं तनुमपि रचयेंस्तस्य विस्तारमिच्छन्‌ बीजानां गर्भितानां फलमतिगहन गूढमुदभेदयंश्च कुव॑न्‌ बुद्धणा विमर्श प्रसृतमपि पुनः संहरन्‌ कार्यंजात॑ कर्त्ता वा नाटकानामिममनुभवति क्लेशभस्मद्विघो वा॥ (मुद्रा 4/ 3)

नाटक के चतुर्थ अंक में, जिसका यह श्लोक है, विमर्श सन्धि है। नाटक- कार यहाँ तक फैले हुए इत्िवृत्त का आगे चलकर निवंहण सन्धि में उपसंहार करता है। विशाखदत्त ने विमर्श सन्धि तक इतिवृत्त का अत्यधिक विस्तार किया है और उसका फलप्राप्ति के लिए कैसे उपसंहार किया जाएं, यह समस्या है यहाँ पहुँचकर विशाखदत्त-जैसा कुशल नाटककार स्वयं क्लेश का अनुभव करता है, ऐसी ही कुछ ध्वनि शलोक के चतुर्थ पाद से निकलती है। इतिवृत्त को उपसंहृत करने में नाटककार को तीन अंक (5, 6 और 7) लिखने पड़ते हैं। अतः: यहाँ पहुँचकर उन्हें क्लेश का अनुभव होना स्वाभाविक ही है।

नाटक की मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श और निरवेहण इन पाँच सन्धियों की अभिव्यक्ति विशाखदत्त ने 'मुहूर्लक्ष्योदर्भेदा मुहुरधिगमाभावगहना' (5/3) इस श्लोक द्वारा भी की है। पुनः: आगे चलकर तत्‌ कि निमित्तं कुकविकृत- नाटक स्थेवान्यन्मुखेध्न्य निवेहणे' (पू० 265) कहकर वहू इस बात की सूचना देते हैं कि अकुशल नाटककार के द्वारा विन्यस्त इतिवृत्त में मुखसन्धि में कुछ और होता है ओर निर्वहण सन्धि में कुछ और। अर्थात्‌ दोनों में कोई

विशाखदत्त की बहुज्ञता 27

सामड्जस्य नहीं रहता इन सब सन्दर्भों द्वारा विशाखदत्त अपने नादूय- शास्त्रीय ज्ञान का परिचय पाठकों को करा देते हैं इससे स्पष्ट हो जाता है कि वह

ताट्यशास्त्र के अच्छे ज्ञाता हैं और उसी ज्ञान के आधार पर उन्होंने इस नाटक की ' मंरचना की है।

राजनीतिश[स्त्र

विशाखदत्त कौटिलीय अर्थशास्त्र के महान्‌ ज्ञाता थे; जिसका प्रभाव इस नाटक में स्थान-स्थान पर दिखायी पड़ता है इसके अतिरिक्त कामन्दकीय नीतिसार का उन्होंने सम्यक्‌ अध्ययन किया था। प्रो. हमत याकोबी इसका समय तृतीय शताब्दी ई० में मानते हैं, जबकि अच्य विद्वान्‌ चतुर्थ शताब्दी | कामन्दक बिष्णुग्ुप्त चाणक्य को गुरुवत्‌ पूज्य मानते हैं औौर अपनी अपार श्रद्धा इन शब्दों में व्यक्त करते हैं---

वंशे विशालवंशानामृषीणामिव भूयसाम्‌ अप्रतित्राहकाणां यो बभूव भुवि विश्ुतः ॥॥

जातवेदा इवारचिस्मान्‌ वेदान्‌ वेदकिदां वर: यो5धीतवान्‌ सुचतुरश्चतुररोष्प्येक बेदवत्‌ ॥।

यस्थाभिचारवर्ज वज्नज्वलनत्तेजस: पपात मूलतः श्रीमान्‌ सुपर्वा नन्दपर्वेतः ।।

एकाकी मन्‍्त्रशकत्या यः शक्‍त्या शक्तिधरोपमः। आजहार नृचन्द्राय चन्द्रगुप्ताय मेदिनीम्‌ ॥॥

नीतिशास्त्रामृतं श्रीमानर्थशास्त्रमहोदधे: उद्ध्ने नमस्तस्मे विष्णुगुप्ताय वेधसे (नोतिसार /2-6)

अर्थात्‌ विशालवंश वाले, ऋषियों के समान प्रतिग्रह करनेवाले पूवेज़ों के उन्नत वंश में जितने जन्म लेकर पृथ्वी में डयाति को अजित किया, जो ज्योतिष्मान्‌ अग्नि के समान है, वेदज्ञों में श्रेष्ठ जिसने चारों वेदों का एक वेदवत्‌ अध्ययन किया, वज्र के समान जाज्वल्यमान तेजवाले जिसके अभिचारकर्म रूपी वज से सुन्दर पर्व (अवयव या चरित) वाला ननन्‍्दरूपी पर्वत मुलत: धराशायी हो गया, शक्तिशाली कारतिकेय के समान जिसने अकेले ही अपनी मंत्रशक्ति से मनुष्यों में चन्द्र चन्द्रगुप्त

28 विशाखदत्त

को पृथ्वी का राज्य प्रदान क्रिया और जिस श्रीमान ने अर्थ-शास्त्ररूपी' महोंदधि' को मथकर नीतिशास्त्ररूपी अम्नृत को निकाला, उस परम बुद्धिमान चाणक्य को प्रणाम है।

इन दोनों राजनीतिपरक शास्त्रों का मुद्राराक्षत पर कितना प्रभाव है, यह पृथक्‌ रूप में विचार करने का विषय है। विशाखदत्त ने तीक्षषरसद (पृू० 22) प्रधानप्रक्रति (प० 69) तन्त्रयुक्ति मण्डल, मन्त्र (2/) परक्ृृत्योपजाप (प० 43) तीक्षण-मृदु (3/5) अन्त: कोप-वाह्मकोप (पृ० 75-76) आभिगामिक गुण (पृ० 93), व्यसन (प० 204) षडगुण (6/4) द्रव्य-अद्रव्य (7/4) आदि अनेक पारिभाषिक शब्दों को अर्थशास्त्र से लिया है, जिनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि मुद्राराक्षस पर कौटिलीय अथ॑ैशास्त्र का सर्वाधिक प्रभाव है। इसके अतिरिक्त प्रथक अंक (प्ृ० 69) में विशाखदत्त ने चाणक्य के सहाध्यायी मित्र इन्दु शर्मा नामक ब्राह्मण को औशनसी दण्डनीति में पारंगत बताया है, इससे यह ध्वनित होता है कि वह शुक्राचार्य की दण्डनीति में भी परम प्रवीण थे

ज्योतिश्शास्त्र

अन्य शास्त्रों की भाँति ज्योतिश्शास्त्र में भी विशाखदत्त निष्णात थे। इस बात की सूचना उन्होंने सवंप्रथम सूत्रधार के मुख से आयें, कृतअमो5स्मि चतुःषष्ट्यगे ज्योतिश्शास्त्रे' और आगे चलकर चाणक्य की' अस्ति चास्माक॑ सहाध्यायि मित्र- मिन्दु शर्मा नाम ब्राह्मण:। चौशनस्यां दण्डनीत्यां चतुःषष्टयगे ज्योतिश्शास्त्रे पर॑ प्रावीण्पमुपगत:' (पृ० 69) इस उक्त द्वारा दी है। चन्द्रग्रहण की पूरी संभावना होते हुए भी बुध का योग कैसे उसे रोक देता है, इसकी उन्हें जानकारी थी। टीकाकार ढुंढिराज ने इस प्रसंग में व्यास संहिता में आये गर्ग के वचनों को इस प्रकार